Sunday, 26 February 2023

हरि अनंत हरि कथा अनंता

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ कहते हुए रामकथा की गहनता और व्‍यापकता की ओर संकेत किया है। रामायण के सम्‍बन्‍ध में यह प्रश्न सदैव उत्‍सुकता का विषय रहा है कि दुनिया के कोने-कोने में हरि कथा बाँचती हुई कितने रूपों में आखिर कितनी रामकथायें उपलब्‍ध हैं। रामकथा के भावुक-जनों को उनकी उत्‍कण्‍ठा का समाधान-सूत्र सम्‍भवत: अग्रवर्णित  कथा में प्राप्‍त हो सके, इस आशय से यह लोक-विश्रुत कथा यथासम्‍भव संक्षेप में दी जा रही है।

त्रेता युग में जब श्रीहरि ने श्री रामचन्द्र जी के रूप में अवतरित होकर अधर्म का नाश किया और एक ऐसे राज्य की स्थापना की जहाँ पर किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं था, तब देवताओं ने उन्हे वैकुंठ में वापस लौटने के लिए निवेदन किया। श्री रामचन्द्र जी ने देवताओं का निवेदन स्वीकार किया तथा उनसे यमराज जी को मृत्युलोक में अयोध्या भेजने का अनुरोध किया। यमराज जी अयोध्या में प्रवेश करने में असहज थे क्योंकि अयोध्या के दुर्ग की रक्षा स्वयं हनुमान जी करते हैं। श्री रामचन्द्र जी जानते थे कि जब तक हनुमान जी अयोध्या के दुर्ग की सुरक्षा कर रहे हैं तब तक यमराज जी के लिए अयोध्या में प्रवेश करना असंभव होगा। अस्तु, उन्होने हनुमान जी को भ्रमित करने के लिए एक लीला रची।

एक दिन राम दरबार सजा हुआ था। श्री रामचन्द्र जी सिंहासन पर विराजमान थे। हनुमान जी ने भी दरबार में आकर श्री रामचन्द्र जी की चरण वंदना की तथा अपना स्थान ग्रहण किया। तभी अचानक श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी उनके हाथ से फिसलकर घूमती हुई दरबार के कोने में एक दरार में जा गिरी। श्री रामचन्द्र जी बोले, ‘प्रिय हनुमान, देखो मेरी अंगूठी अचानक कहीं गुम हो गई है। क्या आप उसे ढूँढ़ कर ला सकते हैं।‘ निश्छ्ल हनुमान जी को क्या पता था कि प्रभु आज उन्हें ही अपने मार्ग का कंटक मानकर स्वयं उनसे ही लीला रच रहे हैं। वो प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए दरार में फँसी अँगूठी निकालने लगे। हनुमान जी को जब उस दरार में अँगूठी नहीं मिली तो उन्होंने सूक्ष्म रूप धारण कर उस दरार के अंदर जाने का निश्चय किया। अपनी लीला सफल होती देखकर श्री रामचन्द्र जी मन ही मन मुस्कराये। जब सूक्ष्म रूप में हनुमान जी ने उस दरार में प्रवेश किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि दरार वस्तुतः नागलोक को जाने वाली एक सुरंग का प्रवेश द्वार थी। हनुमान जी ने उस सुरंग मार्ग से नागलोक जाकर वहाँ अँगूठी ढूँढ़ने तथा नागों के राजा वासुकि के दर्शन का भी निश्चय किया। राजा वासुकि की प्रसिद्धि जीवन और मृत्यु के रहस्य के अद्भुत मर्मज्ञ के रूप में थी । यद्यपि यह एक संकेत था तथापि परमभक्त हनुमान जी के हृदय में कोई भी संशय नहीं आया।

इधर अयोध्या के राजदरबार में देवर्षि वशिष्ठ और भगवान ब्रह्मा पधारे। उन्होने श्री रामचन्द्र जी से एकांत में मंत्रणा करने की इच्‍छा प्रकट की। श्री रामचन्द्र जी ने उनका अनुरोध स्वीकार किया तथा दरबार में उपस्थित सभी मंत्रीगणों एवं सेवकगणों को प्रस्थान करने के लिए आदेश दिया। तभी देवर्षि वशिष्ठ ने कहा कि एक नियम भी लगाना होगा कि जो भी इस एकांत की मंत्रणा को भंग करेगा उसका शीश कटवा दिया जाएगा। श्री रामचन्द्र जी ने देवर्षि को इस नियम के लिए वचन दे दिया। हनुमान जी की अनुपस्थिति में दरबार की सुरक्षा का दायित्व लक्ष्मण जी को दिया गया। श्री रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण को द्वार पर पहरा करने के लिए आदेश दिया तथा कहा कि मंत्रणा के समय किसी को भी दरबार में प्रवेश न करने दे।

जब लक्ष्मण जी द्वार पर पहरा दे रहे थे तभी ऋषि विश्वामित्र पधारे तथा श्री रामचन्द्र जी से अत्यावश्यक कार्य से तत्काल मिलने की इच्‍छा प्रकट की। उन्होने लक्ष्मण जी से कहा कि जाकर श्री रामचन्द्र जी को अविलंब सूचित कीजिये। लक्ष्मण जी ने ऋषिवर को श्री रामचन्द्र जी के आदेश के संबंध बताया कि मंत्रणा के पूर्ण होने तक किसी को भी अंदर जाने की अनुमति नहीं है।

ऋषि विश्वामित्र ने कहा, ‘श्री रामचन्द्र जी का यह आदेश सामान्य जन के लिए होगा, संसार में ऐसी कौन सी बात है जो मुझसे गुप्त रखी जा सकती है। मैं अभी अंदर जाता हूँ।‘

लक्ष्मण जी ने उत्तर दिया, ‘क्षमा कीजिये ऋषिवर किन्तु श्री रामचन्द्र जी की आज्ञा के बिना किसी को भी अंदर प्रवेश करने की अनुमति नहीं है।‘

ऋषि विश्वामित्र ने आग्रह किया, ‘काल विशेष को पहचानो लक्ष्मण और तत्काल जाकर श्री रामचन्द्र जी को मेरे आगमन की सूचना दो।‘

लक्ष्मण जी ने कहा, ‘ऋषिवर, जब तक मंत्रणा समाप्त नहीं हो जाती है मुझे भी अंदर जाने की अनुमति नहीं है।‘

समय बीतता हुआ देखकर ऋषि विश्वामित्र विचलित हो उठे तथा उन्होने कहा, ‘अब आपने यदि श्री रामचन्द्र जी को मेरे आगमन के बारे में सूचित करने में क्षणिक भी विलंब किया तो मैं अपने श्राप से मनु रचित मृत्युलोक की इस प्रथम नगरी अयोध्या को भस्म कर दूंगा।‘

लक्ष्मण जी दुविधा में पड़ गए, ‘यदि मैं श्री रामचन्द्र जी की आज्ञा के बिना मंत्रणा के मध्य दरबार में जाता हूँ तो मेरी इह लीला आज समाप्त हो जाएगी। लेकिन यदि मैं नहीं जाता हूँ तो ऋषिवर की आज्ञा की अवहेलना का परिणाम समस्त अयोध्या नगरी को भुगतना पड़ेगा। नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूंगा, यह ईक्षवाकु वंश की गौरवशाली प्रतिष्ठा का प्रश्न है। मैं आज ही श्री रामचन्द्र जी से मृत्युलोक से प्रस्थान की अनुमति ले लूँगा।‘ इस उधेड़ बुन में वो श्री रामचन्द्र जी की आज्ञा का उल्ल्ङ्घन कर मंत्रणा के मध्य जा पँहुचे।  लक्ष्मण जी को भी श्री रामचन्द्र जी की रची लीला का आभास नहीं था।

श्री रामचन्द्र जी ने पूछा, ‘क्या बात है लक्ष्मण?’

मस्तक झुकाये और आँखों को धरती में गड़ाए हुए ही लक्ष्मण जी ने कहा, ‘ऋषि विश्वामित्र पधारे हैं।‘

‘उन्हें आदरपूर्वक अंदर ले आइये।‘

ऋषि विश्वामित्र अंदर दरबार में गए। तब तक मंत्रणा समाप्त हो चुकी थी। देवर्षि वशिष्ठ और भगवान ब्रह्मा श्री रामचन्द्र जी को यह अवगत कराने आए थे कि त्रेतायुग में चरम सीमा पर पँहुचे अधर्म के नाश करने के साथ ही श्रीहरि के रामवतार का समय पूर्ण हो चुका है तथा अब उनके लिए वैकुंठ में पुनः प्रतिष्ठित होने का समय अनुकूल है।

लक्ष्मण जी ने श्री रामचन्द्र जी कहा, ‘ भ्राताश्री, मेरा शीश समर्पित होने के लिए उपस्थित है।‘

श्री रामचन्द्र जी बोले, ‘अनुज, जब आप आए तो मंत्रणा तो समाप्त हो चुकी थी। इसलिए आप का कोई भी दोष नहीं है।‘

लक्ष्मण जी ने उत्तर दिया, ‘आपको देवर्षि वशिष्ठ को दिये वचन के अनुसार मेरा शीश काटना ही होगा। अन्यथा अयोध्या के लोग क्या कहेंगे कि मर्यादा पुरुषोत्तम ने अपने अनुज के मोह से ग्रस्‍त होकर रघुकुल की रीति भंग कर दी। आपने तो अपनी ही अर्धांगिनी को न्याय की परिधि में बॉंधकर वन्यजीवन के लिए आदेशित किया था तो फिर यह आज मुझसे कैसा मोह है।‘

लक्ष्मण जी शेषवतार थे, वैकुंठ में श्रीहरि उनके ही ऊपर विश्राम करते हैं। इसलिए लक्ष्मण जी का भी मृत्युलोक में समय पूर्ण हो चुका था। लक्ष्मण जी तत्क्षण ही सरयू नदी की तरफ प्रस्थान किए और स्वर्गद्वार में स्वयं को जल में विलीन कर दिया।

लक्ष्मण जी के देहावसान के पश्चात श्री रामचन्द्र जी ने विभीषण, सुग्रीव तथा अन्य मंत्रीगणों को बुलाकर अपने दोनों पुत्रों लव और कुश का राज्याभिषेक किया। तत्पश्चात श्री रामचन्द्र जी ने भी सरयू नदी में जाकर स्‍वयं को विलीन कर लिया।

जब अयोध्या में यह सब घटित हो रहा था उस समय हनुमान जी नागलोक में अपने प्रभु राम की अँगूठी ढूँढ़ने में व्यस्त थे। तभी नागलोक के अनुचरों ने हनुमान जी को वहाँ देखकर उनसे नागलोक में आने का प्रयोजन पूछा। हनुमान जी ने उन लोगों को अँगूठी के खोने की पूरी घटना बताई। उन अनुचरों ने हनुमान जी से कहा कि वह नागराज वासुकि से अँगूठी खोजने में मदद ले सकते हैं। इस तरह हनुमान जी नागराज वासुकि के पास पँहुचे तथा उन्होने नागराज वासुकि से निवेदन किया कि वह उन्हें नागलोक में श्री रामचन्द्र जी की अँगूठी खोजने में सहायता करें। नागराज ने कहा, ‘यह तो मेरे लिए अत्यंत प्रसन्नता का विषय है कि यदि मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ। वह हनुमान जी को अपने साथ नागलोक में स्थित श्रीराम कूप पर ले गए तथा हनुमान जी से कहा कि आप अपने प्रभु की अँगूठी को चुन लो। श्रीराम कूप में पड़ी अनंत अँगूठियों को देखकर हनुमान जी हतप्रभ रह गए क्योकि वहाँ हर अँगूठी श्री रामचन्द्र जी की ही थी। वो समझ गए कि अँगूठी खोयी नही थी बल्कि प्रभु ने उनकी परीक्षा लेने के लिए ही लीला रची है। हनुमान जी ने नागराज वासुकि से उन अनंत अँगूठियों का मर्म समझाने के लिए आग्रह किया। वासुकि ने भ्रमजाल हटाया और कहा, ‘हे हनुमान, श्रीराम कूप की प्रत्येक अँगूठी एक काल चक्र का प्रतिनिधित्व करती है। हर काल चक्र में एक त्रेतायुग आता है और हर त्रेतायुग में एक राम आते हैं जिनकी सेवा का अवसर हनुमान को मिलता है। हर बार जब राम का मृत्युलोक में अवतार का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है तो वह अपनी अँगूठी छोड़ देते हैं तथा उसकी खोज के लिए हनुमान को कुछ समय के नागलोक में भेज देते हैं। मैं उन अँगूठियों को श्रीराम कूप में इकट्ठा करता रहता हूँ। आपने अब इन अँगूठियों का दर्शन कर लिया इसलिए अब आप अयोध्या के लिए प्रस्थान कर सकते हैं। लेकिन अब आपको अपने प्रभु श्रीराम की पुनः सेवा करने के लिए अगले त्रेतायुग तक की प्रतीक्षा करनी होगी।‘    

हनुमान जी को काल-चक्र का ज्ञान हो जाता है और वह प्रभु के नगरदुर्ग की रक्षा के लिए पुनः श्री अयोध्या लौट आते हैं।

आस्था से अभिभूत होकर यदि हम देखे तो ऐसा प्रतीत होता है कि महाकाव्य रामायण आदिकवि वाल्मीकि द्वारा प्रभु श्री राम के चरणों में समर्पित भक्ति भावना है जिसने एक संस्कृत रचना का रूप धारण किया है। लेकिन आधुनिक दृष्टिकोण से देखने पर यह रचना नवपाषाण काल में भारत के इतिहास को अपने पन्नों में समेटती दिखती है। आगे बढ्ने से पहले हमें इस बात पर भी मनन करना होगा कि आखिर अधिकतर भारतीय लोग राम को एक काल्पनिक पात्र तथा रामायण को मात्र एक काव्य रचना क्यों मानते है?


हरि अनंत हरि कथा अनंता

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ कहते हुए रामकथा की गहनता और व्‍यापकता की ओर संकेत किया है। रामायण के सम्‍बन...